Bhagavad Gita: Chapter 16, Verse 11

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिता: |
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिता: || 11||

चन्ताम्-चिन्ताएँ; अपरिमेयाम्-अंतहीन; च-और; प्रलय-अन्ताम् मृत्यु काल तक; उपाश्रिताः-शरण लेना; काम-उपभोग-कामनाओं की तृप्ति; परमाः-जीवन का लक्ष्य; एतावत्-फिर भी; इति–इस प्रकार; निश्चिताः-पूर्ण आश्वासन के साथ;

Translation

BG 16.11: वे अंतहीन चिंताओं से पीड़ित रहते हैं। फिर भी वे आश्वस्त रहते हैं कि कामनाओं की तृप्ति और धन सम्पत्ति का संचय ही जीवन का परम लक्ष्य है।

Commentary

 भौतिक प्रवृत्ति वाले लोग प्रायः आध्यात्मिक मार्ग को अत्यन्त श्रमसाध्य मानने के कारण उसकी अवहेलना करते हैं और अपने चरम लक्ष्य से दूर हो जाते हैं। वे सांसारिक मार्ग का अनुसरण करते हैं, जो शीघ्र तृप्ति प्रदान करता है, लेकिन वे अंत तक संसार में और अधिक संघर्ष करते रहते हैं। भौतिक पदार्थ को प्राप्त करने की इच्छाएँ उन्हें कष्ट देती हैं और वे फिर भी अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति हेतु योजनाएँ बनाते हैं। जब उन्हें मनचाही वस्तु प्राप्त हो जाती है, तब वह कुछ समय के लिए राहत का अनुभव करते हैं। लेकिन बाद में नई इच्छायें जन्म लेती हैं। वह अपनी सुख-सुविधाओं के छिन जाने की चिंता करने लगते हैं और उन्हें बचाने के लिए परिश्रम करते हैं। अंततः जब आसक्त वस्तु से अलगाव हो जाता है, तब उन्हें दुःख ही प्राप्त होता है। इसलिए ऐसा कहा गया है-

या चिन्ता भुवि पुत्र पौत्र भरणाव्यापार सम्भाषणे 

या चिन्ता धन धान्य यशसाम् लाभे सदा जायते।

सा चिन्ता यदि नन्दनन्दन -पदद्वंद्वार विन्देक्षणं

का चिन्ता यमराज भीम सदनद्वारप्रयाणे विभो।।

 (सूक्ति सुधाकर) 

"लोग बच्चों और पोते-पोतियों को पाने की इच्छा, व्यावसाय में व्यस्त रहने, धन संपदा संचित करने और यश प्राप्त करने के लिए तनाव झेलते हैं। यदि वे भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनुराग और उत्साह विकसित करेंगें तब उन्हें कभी मृत्यु के देवता यमराज की चिंता नहीं करनी पड़ेगी। इसके परिणामस्वरूप वे जन्म और मृत्यु के चक्र को पार कर लेंगे" किन्तु आसुरी स्वभाव वाले लोग इस अटल सत्य को स्वीकार नहीं करते क्योंकि उनकी बुद्धि यह समझती है कि सांसारिक सुखों में ही परम सुख की अनुभूति हो सकती है। वे यह नहीं देख पाते कि मृत्यु उन्हें दयनीय अवस्था में धकेलने और भावी जन्मों में और अधिक कष्टों में डालने की योजना बना रही है।

Swami Mukundananda

16. दैवासुर सम्पद् विभाग योग

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